सीख और सबक देते हैं ये अनचाहे किरदार
व्यक्ति के जीवन में जितना शैशव के संस्कारों और पारिवारिक माहौल का असर पड़ता है, उससे कहीं अधिक आस-पास रहने और काम करने वाले तथा परिवेश में मिलते-जुलते रहने वाले लोगों का प्रभाव परिलक्षित होता है।
इसीलिए कहा गया है कि अपने संगी-साथी श्रेष्ठ चरित्र और आचरण वाले, सेवाव्रती, दयामय-करुणावान और परोपकारी होने चाहिएं। न केवल गुरु, बल्कि संगी-साथियों का चुनाव भी खूब सोच-समझ कर किए जाने की परंपरा रही है।
यह स्थिति कुछ दशकों पूर्व तक ठीक-ठाक थी लेकिन हाल के दशकों में वैश्वीकरण और पर निर्भरता तथा काम-धंधों एवं नौकरियों के अपार विस्तार के कारण अब यह संभव ही नहीं रहा कि अपने अनुकूल या श्रेष्ठजनों का ही चयन किया जाए, और उन्हीं के साथ समय गुजारते हुए आगे बढ़ा जाए।
अब इस मामले में सब तरफ सब कुछ गुड़-गोबर और मटियामेट हो चुका है। तकरीबन तमाम बाड़ों और तबेलों का स्वरूप धर्मशालाओं और अजायबघरों जैसा हो गया है, जहाँ दुनिया भर के अच्छे-बुरे, उदासीन, कामचोर, नुगरे-निकम्मे और स्वार्थी भी हैं और सज्जन भी।
यह अलग बात है कि सब तरफ सज्जनों पर दुष्ट, भ्रष्ट और कामचोर हावी हैं। एक जमाना था जब लोग किसी भी क्षेत्र में चोर-डकैतों और भ्रष्ट लोगों को गिना करते थे और ऐसे तत्वों को घृणा और उपेक्षा के भाव से देखा करते थे तथा मौका मिलने पर तिरस्कार करते हुए उन्हें अपनी असली औकात का भान भी कराते रहते थे, और समाज को भी इनके बारे में अवगत कराने में गौरव एवं गर्व तथा सामाजिक उत्तरदायित्व का बोध कराते रहते थे।
अब ठीक इसका उलट हो चला है। अब नुगरों की भीड़ में सज्जनों को चिह्नित किया जाने लगा है। लेकिन यह केवल जानने भर तक ही सीमित है, सज्जनों के लिए इसका कोई फायदा नहीं है। क्योंकि आजकल आदमी उस होटल या ढाबे की तरह हो गया है जिसके साईन बोर्ड पर लिखा होता है – वेज एण्ड नॉनवेज। या कि उस लॉरी की तरह हो गया है जिस पर आलू और प्याज साथ-साथ बेचे जा रहे हैं और अण्डे भी साईड में बिकने के लिए रखे हुए हैं। जिसे जो पसन्द है उसे पाए। किसी को किसी दूसरे से कोई एतराज नहीं है। इसमें न कोई ध्रुवीकरण है, न कोई शुद्धता-अशुद्धता, घृणा या दूरी का भाव।
जहाँ इंसान के मनचाहे स्वार्थ की पूर्ति होने लगती है, वहाँ लाज-लज्जा और सब कुछ छोड़कर पूरी बेशर्मी से साष्टांग दण्डवत करने लग जाता है। उभयचरों की तरह होकर रह गया है आज का आदमी। उसकी न कोई स्पष्ट विचारधारा है, न इस पार या उस पार का सिद्धान्त।
पालतु और फालतू श्वानों की तरह जिधर मुफत में रोटी-बोटी के साथ बिछाने-सोने और ओढ़ने का इंतजाम हो जाए, और दूसरी सारी जरूरतें बिना किसी परिश्रम के होती रहें, उस तरफ हो जाता है। फिर चाहे किसी के भी इशारों पर किसी को भी भौंकना, लपकना या काटना ही क्यों न पड़े।
न सोचने की आवश्यकता है, न दिमाग लगाने की। चाबी भरो, सेल लगाओ और पुतलों का डाँस शुरू। मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना जैसे हालातों के साथ अब फैशन का दौर इतना हावी है कि हर कोई अपनी चादर से ज्यादा फैलना-फैलाना और अधिकार जताना चाहता है और इस चक्कर में वह अपनी तमाम मर्यादाओं, इंसानियत और नैतिक मूल्यों को दरकिनार करता हुआ वही सब करने को उद्यत रहता है जो भीड़ करती है।
यही कारण है कि आजकल सभी स्थानों पर जबर्दस्त भीड़-भाड़ उन्हीं की है जो भेड़ों और भेड़ियों की रेवड़ों की तरह अपने आपको ढाल चुके हैं। कोई सा कार्यस्थल हो या सार्वजनिक स्थल, अब जात-जात के गिरगिटों की धमाल देखने को मिल रही है।
नाकाराओं को देखकर कर्मवीर अपनी तुलना करते हुए निकम्मे हुए जा रहे हैं, चोर-डकैतों और लूटेरों की धींगामस्ती और धमाल का रुतबा देखकर अच्छे-अच्छे लोग भ्रमित हो रहे हैं।
इन सबमें जो सबसे पीछे छूटता जा रहा है वह है नैतिक संस्कारों और राष्ट्रीयता का भाव। राष्ट्रीय चरित्र की बात तो बेमानी ही हो चली है और सुविधाओं का उन्मुक्त उपभोग जन्मसिद्ध अधिकार।
अपने को प्राप्त अवसरों, सुविधाओं और संसाधनों को गाजर की पूंगी समझ कर हर कोई बजाते हुए मदमस्त होकर पूरा का पूरा स्वाद लूटते हुए खाने लगा है और इसमें सबसे ज्यादा किसी को भुगतना पड़ रहा है तो वह देश को, समाज को।
प्रकारान्तर से यह मातृभूमि के साथ गद्दारी, धोखा और विश्वासघात तो है ही, महापापों का अजस्र स्रोत भी सिद्ध हो रहा है। कर्म और फर्ज से कहीं ज्यादा हमें अपने अधिकारों की चिन्ता सताए रहती है, और इसका खामियाजा भुगतने को विवश है हमारी नई पीढ़ी।
जो जितना अधिक पुराना और घाघ होता जा रहा है उतना बड़ा पंजीकृत निकम्मा, शोषक और अनधिकृत हड़पाऊ कल्चर का अनुगामी होने लगा है। हालांकि धरती पर आज भी सज्जनों, निष्ठावान कर्मयोगियों और समर्पित सेवाव्रतियों की कमी नहीं है पर उनकी संख्या में लगातार हो रही कमी आज की सबसे बड़ी चिन्ता का विषय है।
इन तमाम गुणावगुणों वाले लोगों की अनचाही और बेवक्त प्रसूत भीड़ हमारे आस-पास और साथ रहने लगी है जिनसे जीवन और जगत के व्यावहारिक लक्षणों, चरित्र और धाराओं की थाह पाने और उन्हें समझने का हमें जो मौका मिला है उससे सीखने-समझने और उसी अनुरूप व्यवहार करने की दिशा में आगे बढ़ना अधिक लाभकारी एवं श्रेयस्कर है।
इन लौकिक व्यवहारों को हम सीख और सबक दोनों रूपों में ग्रहण कर सकते हैं। हर तरफ मिलावट, वर्णसंकरता और अलक्ष्मी को पाने के लिए निरन्तर प्रसार पा रहे आसुरी भावों वाले परिवेश में अब विशुद्ध बीज तत्व और शुचितापूर्ण व्यवहार वाले जीव मिलना मुश्किल है इसलिए अपनी दृष्टि को पैनी रखते हुए छलनी और फिल्टर्स का इस्तेमाल करते हुए निरपेक्ष एवं अनासक्त भाव से सारतत्त्व को पाने का मार्ग ही आज के समय में श्रेष्ठ, निरापद और प्रासंगिक है।