विद्यापति पंडित ने खोजी थी जगन्नाथजी की प्रतिमा

सेवा भारती समाचार

  • ब्रहमदेव ने की थी जगन्नाथजी की प्रतिमा स्थापना

राजा इंदूम्न ने एक भव्य मंदिर का निर्माण ओडिशा में समुद्र किनारे करवाया था। अब बारी भगवान की प्रतिमा को खोजने की थी। क्योंकि मूर्ति की स्थापना कैसे होगी इस संबंध में राजा को जानकारी नहीं थी। उसने भगवान से प्रार्थना की कि प्रभु आप आगे का रास्ता बताइये। उसी रात राजा को स्वप्न आया कि राजन! यहाँ आस – पास ही भगवान कृष्ण विग्रह रूप में विद्यमान है, उसको खोजने का प्रयास है, आपको दर्शन दर्शन अवश्य प्राप्त होंगे। राजा ने श्री कृष्ण के इस विग्रह स्वरूप की खोज के लिए चार विद्वान पंडितों को लगाया। विद्यापति पंडित ने उस जगह को तलाश लिया क्योंकि वहां वाद्य यंत्रों से मधुर ध्वनि हो रही थी।

विद्याति पंडित प्रभु के ध्यान में खोये हुए थे की अचानक एक बाघ को सामने देखकर बेहोश हो गए।उसी समय एक लड़की के पुकारने पर बाघ उसके पास चला गया। वह कन्या भीलों के राजा विश्वावसु की इकलौती पुत्री ललिता थी। इसके बाद वह श्री कृष्ण भक्त होने के कारण से वह भीलों को ज्ञान और उपदेश देने लगे। आललिता को विद्याति से प्रेम हो गए और दोनों का विवाह हो गया। लेकिन विद्यापति का और प्रतिमा को खोजना था। एक दिन विद्याति को पता चला कि विश्वावसु रोजाना कहीं जाता है और सूर्योदय के बाद ही वापस आता है।

उसने इस बात का पता लगाने का विचार किया और ललिता से पूछा, लेकिन ललिता इस बात को विद्याति पंडित को नोट करना चाहती थी क्योंकि यह बात उसकी वंश की परंपरा से जुड़ी हुई थी। कुछ समय बाद ललिता ने कहा कि यह बात मैं तुम्हें बता सकती हूं क्योंकि तुम अब मेरे कुल से जुड़ चुके हैं, इस जगह से कुछ दूरी पर एक गुफा है, वहां हमारे कुलदेवता विराजमान हैं, उन्ही की पूजा के लिए पिता जी पर जाएं। हैं। विद्याति उस मंदिर के दर्शन करना चाहते थे, किन्तु ललिता के पिता उस रहस्य को उन्हें बताना नहीं चाहते थे, तब विद्यापति ने उन्हें विश्वास दिलाया कि आपके बाद मैं ही तो हूं जो कुलदेवता की नित्य पूजा करूँगा। कराऊंगा, लेकिन आपकी आँखों पर पट्टी बाँध कर ले जाऊंगा।

अब विद्याति ने मूर्ति को अपने साथ ले जाने के लिए एक चाल चली। उनकी आँखों पर पट्टी बांध दी गयी थी लेकिन विद्यापति अपने बाएं हाथ में सरसों के दाने लेकर गए थे, जिन्हें वे सभी रास्ते में बिखेरते चले गए। वे जब गुफा के सामने पहुंचे, वहां पर नीली रोशनी चमक रही थी। गुफ़ा के अंदर जाकर उन्होंने अनुभवी श्रीकृष्ण के इस दिव्य स्वरुप के दर्शन किए। वे भाव-विभोर हो गए और उन्होंने भगवान से प्रार्थना की। उसके बाद आँखों पर पट्टी बांधकर विद्यापति को घर वापस लाया गया। अगली सुबह विद्यापति ने ललिता से अपने माता-पिता से मिलने का बहाना बनाया और गुफा की ओर मूर्ति चुराने के निकल गए। अब सरसों के दनों की जगह रास्ते में पौधे उग आये थे, उसी रास्ते पर वह जा रही थी, मंदिर में श्री कृष्ण के दर्शन कर प्रभु से क्षमा मांगी और मूर्ति उठा कर घोड़े पर रख कर टावर स्थल पर प्रस्थान हो गए। विद्यापति राजा के पास पहुंचे और राजा मूर्ति को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। राजा को स्वप्न आया था कि सागर में बहती हुई एक लकड़ी का कुंडा उसके ऊपर नक्काशी करवा कर भगवान की सुंद प्रतिमा बनवा लेना। तब राजा ने विद्यापति से कहा कि लकड़ी की मूर्ति बन जाना पर तुम यह मूर्ति अपने विश्वावसु को वापस कर देना।

अगले दिन सभी लोग सागर से लकड़ी लेने गए, लेकिन वे सभी लोग लकड़ी उठा ही नहीं पा रहे थे । तब राजा को इस बात का पता चला कि आजतक जो इस मूर्ति की पूजा करता आ रहा है उसका स्पर्श इस लकड़ी को होना आवश्यक है। राजा ने बताया कि हम लोगों को तुरंत विश्वावसु से माफी मांगने चलना चाहिए। उधर विश्वावसु अपनी दिनचर्या के मुताबिक गुफा में पूजा करने को निकला लेकिन मूर्ति न पाकर समझ गया कि यह काम उसके दामाद का ही है।

विश्वावसु काफी उदास हो गए एक दिन बीत गया। वे सुबह फिर गुफा की और निकल गए, उसी स्थान पर हाथ जोड़कर रोने लगे, इतने में आकाशवाणी हुई कि विद्यापति राजा इंद्रयुम्न पधार रहे हैं। विश्वावसु गुफा से बहार आये तब इंद्रयुम्न ने उन्हें गले लगा लिया और कहा कि तुम्हारी मूर्ति का चोर विद्यापति नहीं है, मैं हूँ। राजा ने विश्वावसु को सारा वृत्तांत सुनाया। भगवान के आदेशानुसार इस स्वरूप के दर्शन सभी को प्राप्त हों इसीलिए मुझे यह काम करना पड़ रहा है, कृपया इसमें मेरी मदद कीजिये और भगवान जगन्नाथ, बलभद्र, सुभद्रा की मूर्ति बनाने के लिए आये हुए उस लकड़ी के कुंडे को उठवाने में सहयोग कीजिये। क्योंकि जब आप उस लकड़ी को स्पर्श करोगे तभी उसका भार कम होगा। विश्वावसु तैयार हो गए और सागर से लकड़ी उठाकर लाये।

उस समय एक वृद्ध कलाकार ने राजा से कहा कि मूर्ति बनाने का काम मुझ पर छोड़ दो, लेकिन मुझे एकांत स्थान चाहिए, मैं इस कार्य में कोई रुकावट नहीं चाहता हूँ, मैं यह मूर्ति निर्माण एक बंद कमरे में करूँगा, मूर्ति बनने पर मैं स्वयं दरवाजा खोल कर बाहर आ जाऊंगा। इस कमरे के अंदर कोई भी व्यक्ति नहीं आना चाहिए। आप सभी बाहर संगीत बजा सकते हैं जिससे मेरे औजारों की आवाज़ बाहर तक आपके पास ना आये। मूर्ति निर्माण का कार्य 21 दिनों तक चलेगा, तब तक मैं ना कुछ खाऊंगा ना पिऊंगा। राजदरबार के सभी लोग अपने कानों को दरवाज़ों पर लगा लेते थे और औजारों की आवाज़ सुना करते थे। अचानक 15 वें दिन आवाज़ का आना बंद हो गया। रानी गुंडिचा इसको लेकर बेहद चिंतित हो गई कि कहीं अंदर कोई अनहोनी तो नहीं हो गई। उन्होंने धक्का देकर दरवाज़ा खोल दिया और वृद्ध को दिया हुआ वचन उन्होंने तोड़ दिया।

दरवाज़ा खुलते ही मूर्तिकार गायब हो गया और, मूर्ति अधूरी रह गयी। इस कारण भगवान जगन्नाथ, बलभद्र, सुभद्रा के हाथ – पैर नहीं बन पाए थे। राजा और रानी रोने लगे। तब भगवान ने उनसे कहा कि आप लोग किसी तरह की चिंता न करो, मूर्ति बनाने वाला वृद्ध स्वयं भगवान विश्वकर्मा जी थे। जिन मूर्तियों को तुम अधूरा समझ रहे हो वास्तव में उनको वैसा ही बनना था। अब आप लोग नीलांचल पर 100 कुएं बनवाओ, 100 यज्ञ करवाओ, कुओं के जल से मेरा अभिषेक करवाओ, उसके बाद स्थापना स्वयं ब्रह्मदेव करेंगे। वहां पर नारद जी तुम्हे लेकर जायेंगे। इस तरह से भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्ति की मंदिर में स्थापना हुई। ऐसा भी कहा जाता है कि विश्वावसु एक बहेलिये का वंशज था जिसके तीर से श्री कृष्ण का परलोकगमन हुआ था। विश्वावसु भगवान के अवशेषों की पूजा किया करता था जो मूर्ति के अंदर छुपे थे।

Show More

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button