जो जीव मुक्त होने का प्रयत्न नहीं करता, वह आत्म हत्यारा है : साध्वी मेरुदेवा

सांगरिया में कथा के प्रथम दिवस मुक्ति की युक्ति बताई

जोधपुर। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान द्वारा 22 से 28 जनवरी तक सात दिवसीय श्रीमद् भागवत कथा का सांगरिया के गणेश नगर क्षेत्र में भव्य आयोजन किया गया है। कथा का समय है दोपहर 2 से सायं 6 बजे तक।
संस्थान के संस्थापक एवं संचालक गुरुदेव सर्व श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या कथा–व्यास साध्वी सुश्री मेरूदेवा भारती जी ने परीक्षित के प्रसंग को भक्तों के समक्ष रखते हुए कहा कि राजा परीक्षित से जाने अनजाने में एक ऋषि का अपमान हो जाता है, तो उन्ही ऋषि के पुत्र द्वारा उन्हें एक श्राप मिलता है, कि आज से ठीक सातवे दिन एक तक्षत नाग के द्वारा डसे जाने से उनकी मृत्यु हो जायेगी। जब परीक्षित को इस बात का बोध होता है कि उनसे कैसा कर्म हो गया है तो वे उसके निवारण के लिए गुरु वेदव्यास जी के पास जाते हैं। और उस युक्ति को प्राप्त करते हैं जिसके द्वारा वे मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं।
कथा व्यास जी ने आगे समझाते हुए कहा कि ठीक इसी तरह आज प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में कर्म कर रहा है, कुछ अच्छे कर्म तो कुछ बुरे कर्म जो हमसे जाने अनजाने में हो जाते हैं। परंतु हर कर्म हमे जन्मों जन्मों के बंधन में बंध देते हैं। भाव कि आवागमन के बंधन में बंधा जीव बार बार इस मृत्यु लोक में आकर अनेकों ही कष्ट व पीड़ा को सहन करता चला जाता है, लेकिन वह कभी भी इन कर्मो के बंधनों से मुक्त नहीं हो पाता है। लेकिन वहीं राजा परीक्षित जिनके पास सिर्फ सात दिवस ही शेष रह गए थे, उन्होंने पूर्ण गुरु की शरणागत होकर उस महान ब्रह्मज्ञान को प्राप्त किया, ईश्वर का साक्षात्कार किया, उनका दर्शन किया, जिससे वे मोक्ष को प्राप्त कर पाएं।
ठीक इसी तरह हमारे जीवन में भी तो यही सात दिवस हैं। इन्ही में से किसी एक दिन हमारा जन्म हुआ है और इन्ही में से किसी एक दिन हमारी मृत्यु हो जायेगी। इस जीवन का कोई भरोसा नहीं है, इसलिए हमे जागना होगा, अपने आत्मकल्याण के विषय में चिंतन करना होगा कि क्या हमारे पास भी वह युक्ति है जिससे हम भी अपने कर्मो के बंधन से मुक्त हो पाएं। रामचरितमानस के उत्तर काण्ड में गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं–

जो न तरै भाव सागर, नर समाज अस पाई।
सो कृत निंदक मंदमति, आत्माहन गति जाई।

अर्थात जो जीव मनुष्य तन को प्राप्त करने के पश्चात भी भव–सागर से पार होने का प्रयत्न नहीं करता है, वह कृतघ्न, मंदमति और आत्महत्यारा है। इसीलिए जिस प्रकार राजा परीक्षित ने गुरु की शरणागत होकर उस मुक्ति की युक्ति को जाना। ठीक इसी प्रकार हमे भी एक पूर्ण ब्रह्मनिष्ट गुरु की शरणागत होना होगा, तभी हम भी अपने कर्म बंधनों से मुक्त हो पाएंगे।

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