सिद्धि, ध्यान व विद्या की आराधना एकांत में होती है: साध्वी अर्पितगुणा

जोधपुर। देवनगर स्थित भगवान महावीर वाटिका में चातुर्मासिक प्रवचन के अंतर्गत साध्वी श्री अर्पितगुणा जी म.सा. ने श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए कहा कि सिद्धि, ध्यान एवं विद्या की आराधना सदैव एकांत में होती है। उन्होंने कहा कि आत्मकल्याण की दिशा में आगे बढ़ने के लिए जीवों का सहारा लेना पड़ता है, और जिनागम हमारे भीतर करुणा को जाग्रत करता है।
साध्वी श्री ने कहा कि पंच परमेष्ठी का स्मरण करने से पाप, दुख, भय, शोक और चिंता जैसे सभी मानसिक कष्टों का नाश हो जाता है। नमस्कार भाव से जब साधक की चित्तवृत्ति परमात्मा में विलीन हो जाती है, तब वह ध्याता स्वयं भाव निरपेक्ष परमात्मा के समान हो जाता है। उन्होंने नवकार मंत्र की महत्ता बताते हुए कहा कि इसके नौ पद — अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप — मोक्ष मार्ग के मूल स्तंभ हैं।
प्रवचन में उन्होंने आगम की व्याख्या करते हुए कहा कि जिनशासन के ग्रंथों को महापुरुषों ने वृत्ति, टीका, भाष्य और चूर्णी के माध्यम से सरल भाषा में समझाया है। साध्वी श्री ने कहा कि “विज्ञान का दर्शन कराने वाला यही आगम है।” अगर ज्ञान को विनय मुद्रा से पढ़ा जाए तो वह हृदयस्थ हो जाता है और स्थायी प्रभाव छोड़ता है।
उन्होंने श्रोताओं को प्रेरित करते हुए कहा कि दान-पुण्य करने से संचित पापों का क्षय होता है और किसी भी कार्य को करने से पूर्व अपने बड़ों की आज्ञा अवश्य लेनी चाहिए। जैन शासन में हजारों सिद्धियाँ निहित हैं, उन पर श्रद्धा रखने से ही वे फलित होती हैं।
साध्वी श्री के प्रवचन से उपस्थित श्रद्धालुओं ने आत्मकल्याण की दिशा में प्रेरणा प्राप्त की।